यदि उद्धव ठाकरे चाहते तो मुख्यमंत्री बने रहते
प्रेम शुक्ल
महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार को बहुमत हासिल हो चुका है। महाराष्ट्र के नवनिर्वाचित विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ना केवल एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले विधायक दल को शिवसेना विधायक दल के रूप में स्वीकार कर चुके हैं बल्कि इस गुट के सचेतक भरत गोगावले की शिकायत पर शिवसेना के शेष विधायकों को नोटिस देने पर विचार कर रहे हैं । आदित्य ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के विधायक दल की संख्या 15 है। एकनाथ शिंदे ने दिवंगत बाला साहब ठाकरे और ठाणे शिवसेना के भूतपूर्व जिला अध्यक्ष स्व. आनंद दिघे के प्रति अपना अगाध सम्मान व्यक्त करते हुए उन्हैं अपना आदर्श माना है। उनका गुट उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के विरुद्ध तो कुछ भी नहीं बोल रहा लेकिन शिव सेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राऊत को लेकर मुखर व आक्रामक है जिस तरह के हालात हैं उसमें उद्धव ठाकरे को शिवसेना बचाने के लिए एकनाथ शिंदे गुट के समक्ष समर्पण करने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं दिखाई देता।
शिवसेना पर पिछले चार पीढिय़ों से ठाकरे परिवार का नियंत्रण रहा है । शिवसेना यानी ठाकरे और ठाकरे यानी शिवसेना। दोनों एक दूसरे के पूरक रहे हैं। किसी ने चंद दिनों पहले यह कल्पना भी नहीं की होगी कि शिवसेना में ठाकरे परिवार हाशिए पर आ जाएगा और जब उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे और रश्मि ठाकरे के विरुद्ध खुलकर आलोचना होंगी और शिव सैनिकों का बड़ा वर्ग शिंदे खेमे के प्रति समर्थन जाहिर करेगा।
शिवसेना पर ठाकरे परिवार के चार पीढिय़ां से प्रभुत्व कहने पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है लेकिन जो शिवसेना और ठाकरे परिवार को जानता है वह इस तथ्य से अवगत है कि शिवसेना बनाने की प्रेरणा और उसका नामकरण स्व. बाल ठाकरे के समाज सुधारक पिता केशव उपाख्य प्रबोधनकार ठाकरे से मिली थी । लंबे समय तक उन्होंने शिवसेना की गतिविधियों का मार्गदर्शन किया था इसलिए यह माना जाना चाहिए की प्रबोधनकार के विचारों की शिवसेना पर अमिट छाप है। प्रबोधनकार हिंदुत्व के खुले समर्थक थे पर उनकी संगत समाजवादियों और रयत आंदोलन से प्रभावित थी। इसलिए शिवसेना का पहला गठबंधन मुंबई महानगर पालिका में मधु दंडवते के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी से होता है । हालांकि यह गठबंधन बेहद अल्पजीवी रहता है ।
प्रबोधनकार के बाद बाला साहब ने शिवसेना पर अपना पूर्ण नियंत्रण तो रखा पर वे कभी किसी राजनीतिक विचारधारा से अस्पृश्यता का भाव नहीं रखते थे इसलिए उन्होंने प्रैक्टिकल सोशलिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग, कांग्रेस आदि से भी सहजता से समझौते किए। उनका व्यक्तित्व 1987 तक मुंबई को बंद करने की क्षमता रखने वाले एक प्रभावशाली नेता की थी । वे मराठी माणुस के मुंबई क्षेत्र में तारणहार की भूमिका में भी थे।
किंतु शिवसेना का विस्तार महामुंबई के परिसर के बाहर नहीं था। शिवसेना के मंच पर कांग्रेसी रामराव आदिक और कम्युनिस्ट कामरेड एसआर डांगे सहजता से आते थे। तब हिंदुत्व को लेकर बाला साहब ठाकरे का आग्रह कट्टर नहीं हुआ था । उन पर 1970 और 1984 में भिवंडी में सांप्रदायिक दंगे कराने का आरोप लग चुका था तब भी अब्दुल रहमान अंतुले के लिए भी बालासाहेब ठाकरे से राजनीतिक मैत्री सहज थी ।
1985 में महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के समय जॉर्ज फर्नांडिस की जनता पार्टी, शरद पवार की कांग्रेस(एस) और प्रमोद महाजन के नेतृत्व वाली भाजपा ने कांग्रेस के विरोध में पुरोगामी लोकतांत्रिक दल का गठन किया था तब शिवसेना प्रमुख गठबंधन जॉर्ज फर्नांडिस और शरद पवार के टेलीफोन की प्रतीक्षा करते हुए मातोश्री पर ही बैठे रह गए और उनके मित्रों में सीटों का बंटवारा हो गया। तब मुंबई महानगरपालिका पर शिवसेना प्रभावी थी किंतु अपने बूते छगन भुजबल के अलावा किसी को विधानसभा चुनाव नहीं जिता पाई ।1987 में जब विले पार्ले उपचुनाव में रमेश प्रभु को मैदान में उतारकर शिवसेना ने हिंदुत्व का हुंकार भरा तो परिणाम आया कि शिवसेना मुंबई से बाहर विस्तार करने की क्षमता पा गई।
1987 के विले पार्ले उपचुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषांगिक संगठनों ने खुलकर शिवसेना का समर्थन किया था। इस चुनाव के बाद शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पूजनीय बाला साहब देवरस के संपर्क में आए। विश्व हिंदू परिषद के रमेश मेहता के घर पर दोनों की भेंट हुई । हिंदुत्व के मुद्दे पर साथ चलने का संकल्प हुआ । तब प्रमोद महाजन के नेतृत्व में भाजपा में शिवसेना से समझौते को लेकर चर्चा शुरू हुई। उन दिनों शिवसेना के विधायकों की संख्या थी दो और भारतीय जनता पार्टी के विधायकों की संख्या 14 थी । शिवसेना में निर्णय अकेले शिवसेना प्रमुख लेते थे, यह सत्य है। किंतु तत्कालीन शिवसेना नेताओं के परामर्श के बिना नहीं।
शिवसेना को तो महाराष्ट्र में विस्तार का लाभ मिल गया था और मुंबई में हिंदुत्व की शक्ति खड़ी करना यह संघ के विचार दर्शन का भी संकल्प था ।भाजपा के तब 30 संगठनात्मक जिले हुआ करते थे । सभी जिला कार्यसमितियों में शिवसेना से गठबंधन के मुद्दे पर चर्चा हुई । पदाधिकारियों में इस मुद्दे पर मत विभाजन भी हुआ । 29 जिलों के संगठनों में शिवसेना से गठबंधन के पक्ष में बहुमत था, सिर्फ चंद्रपुर जिले में दोनों के पक्ष में 50 -50 फ़ीसदी लोग थे । यह गठबंधन विचारधारा, कार्यकर्ताओं के अंतर्संबंध , राजनीतिक आवश्यकता और सामाजिक सेवा के बल के रूप में प्रबल था । इसी कारण दोनों दलों के नेताओं में तमाम मतभेदों के बावजूद यह गठबंधन 25 वर्षों से अधिक समय तक चला ।