भाजपा की चुनाव पूर्व रणनीति

भाजपा की चुनाव पूर्व रणनीति
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अजीत द्विवेदी
भारतीय जनता पार्टी की चुनाव पूर्व रणनीति कामयाब होती दिख रही है। हालांकि चुनाव पूर्व रणनीति की कामयाबी इस बात की गारंटी नहीं होती है कि पार्टी चुनाव जीत जाएगी। लेकिन इससे नेताओं, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में एक सकारात्मक संदेश जाता है। महज छह महीने पहले विपक्षी गठबंधन के बारे में सकारात्मक संदेश बना था। जब विपक्षी पार्टियां एकजुट हुई थीं और एक के बाद एक चार बैठकें हुईं और यह प्रचार हुआ कि भाजपा के हर उम्मीदवार के खिलाफ विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार होगा तो मनोवैज्ञानिक स्तर पर देश के मतदाताओं में एक बड़ा संदेश गया था। विपक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी धारणा के स्तर पर सकारात्मक स्थिति बनी थी। ठीक वैसी ही स्थिति अब भाजपा और उसके गठबंधन को लेकर बन रही है। छह महीने पहले विपक्ष की जो स्थिति थी उससे भाजपा में चिंता बढ़ी थी। अब उसने टेबल टर्न कर दिया है। उसने ऐसी राजनीति की है, जिससे धारणा बदल गई है। भाजपा ने विपक्ष के गेम प्लान को पंक्चर करने के लिए पहले उसके मुकाबले ज्यादा बड़ा गठबंधन बनाने का फैसला किया था। तभी जुलाई में भाजपा ने 38 पार्टियों के साथ एनडीए की बैठक की। लेकिन जल्दी ही उसको समझ में आ गया कि आकार में विपक्ष से बड़ा गठबंधन बनाना अच्छी रणनीति नहीं होगी। इसलिए उसने अपना आकार बढ़ाने की बजाय विपक्षी गठबंधन का आकार छोटा करना शुरू कर दिया। उसने विपक्ष को कमजोर करने की राजनीति की। अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन से हिंदू पुनरुत्थान का नैरेटिव बनाने के बाद भी भाजपा ने राज्यों में अपनी राजनीतिक कमजोरियों को दूर करने का प्रयास किया।

भाजपा की चुनाव पूर्व रणनीति की कामयाबी में दो बातें अहम हैं। पहली बात तो यह कि उसने अपनी कमजोरी और विपक्षी गठबंधन की ताकत को पहचाना और दूसरी बात यह कि अपनी कमजोरी को दूर करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद सभी उपायों का इस्तेमाल किया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर जून से अगस्त के बीच विपक्षी गठबंधन ने जैसी एकता दिखाई थी उससे भाजपा को अपनी कमजोरी का अहसास हुआ। भाजपा की कमजोरी दो स्तर पर थी। पहला, सामाजिक समीकरण और दूसरा विपक्षी गठबंधन की पार्टियों के मजबूत असर वाले राज्यों में उसका कमजोर होना। अगर किसी पार्टी को अपनी कमजोरी का पता चल जाए तो उसे दूर करना बहुत आसान हो जाता है। सो, भाजपा ने अपनी इन दोनों कमजोरियों को पहचाना। उसने उन राज्यों की पहचान की, जहां विपक्षी गठबंधन उसको नुकसान पहुंचा सकता था और उन राज्यों में अपने को मजबूत करने और साथ साथ विपक्ष को कमजोर करने का भरपूर प्रयास किया। भाजपा का यह प्रयास काफी हद तक कामयाब हो गया।

हकीकत यह है कि भाजपा को इसमें ज्यादा प्रयास करने की जरुरत ही नहीं पड़ी। विपक्षी गठबंधन की फॉल्टलाइन पहले से सबको पता थी और साथ ही गठबंधन की केंद्रीय पार्टी यानी कांग्रेस के काम करने का तरीका भी भाजपा को पता था। भाजपा को पता था कि कांग्रेस फैसला करने में बहुत देरी करेगी और कांग्रेस ने सचमुच देरी की, जिसका फायदा भाजपा ने उठाया। लेकिन उसको ज्यादा फायदा विपक्षी पार्टियों की आंतरिक राजनीति और आपस के पारंपरिक टकराव से हुआ। भाजपा को अजित पवार की महत्वाकांक्षा का पता था और उनकी मजबूरियों को भी पता था। इसलिए भाजपा ने उनके ऊपर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों को बड़ी सुविधाजनक तरीके से भुला दिया और उनको उप मुख्यमंत्री बना दिया। उनको खुश करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का रुख चाचा शरद पवार के साथ रह गए परिवार के दूसरे लोगों की ओर कर दिया गया। अजित पवार और उनके बेटे पार्थ के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर रहे शरद पवार के पोते रोहित पवार के यहां अब केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चल रही है। महाराष्ट्र में भाजपा पहले ही शिव सेना को तोड़ चुकी थी और विपक्षी गठबंधन की एकता बनने के बाद एनसीपी को भी तोड़ दिया। सो, 48 लोकसभा सीट वाले राज्य में भाजपा भले अभी बहुत मजबूत हो गई नहीं दिख रही हो लेकिन उसने विपक्ष को कमजोर कर दिया।

महाराष्ट्र के बाद उसके लिए दूसरा कमजोर राज्य कर्नाटक था, जहां विधानसभा चुनाव में वोक्कालिगा वोट कांग्रेस की ओर जाने से भाजपा और एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस दोनों को नुकसान हुआ था। सो, भाजपा ने दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बना लिया। डीके शिवकुमार की वजह से वोक्कालिगा वोट पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए एचडी देवगौड़ा ने भाजपा के साथ तालमेल कर लिया। हालांकि तब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा और जेडीएस राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से अपनी 27 सीटें बचा लेंगे लेकिन वहां अपने को मजबूत करके भाजपा ने नुकसान कम करने का प्रयास किया है।

कर्नाटक के बाद तीसरा राज्य बिहार था, जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास शुरू किया था और कामयाब हुए थे। भाजपा को नीतीश की महत्वाकांक्षा और गठबंधन के अंदर की खींचतान का अंदाजा था। सो, उसने जबरदस्त रणनीतिक लचीलापन दिखाते हुए नीतीश कुमार से फिर तालमेल कर लिया। नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखते हुए उनकी पार्टी जनता दल यू की एनडीए में वापसी कराई गई। जरुरत पडऩे पर घनघोर राजनीतिक व वैचारिक दुश्मन को भी साथ जोडऩे के लिए जिस उच्च स्तर का लचीलापन होना चाहिए वह भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दिखाया। उसका नतीजा यह हुआ कि बिहार में, जहां एनडीए को सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना दिख रही थी वह लगभग खत्म हो गई। नीतीश कुमार के भाजपा के साथ लौट जाने से बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर सामाजिक व राजनीतिक समीकरण एनडीए के पक्ष में हो गया तो साथ ही पूरे देश में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के बिखरने का संदेश चला गया। बिहार के बाद झारखंड में एक मजबूत गठबंधन सरकार को अस्थिर करने का प्रयास चल रहा है।

भाजपा के लिए मुश्किल राज्यों में एक पश्चिम बंगाल भी है, जहां पिछली बार भाजपा को छप्पर फाड़ सीटें मिली थीं। उसने 42 में से 18 सीटें जीत ली थीं और उसके बाद विधानसभा चुनाव में भी उसने अपना वोट आधार कायम रखा था। वहां भी विपक्षी पार्टियों का गठबंधन होने की संभावना कम ही दिख रही है। कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व का राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ टकराव और वामपंथी पार्टियों के साथ संघर्ष के पुराने इतिहास की वजह से विपक्षी एकजुटता की संभावना काफी कम है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को इस बात की आशंका थी कि अगर पिछली बार की तरह बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच तालमेल हो गया तो उसको नुकसान हो सकता है। लेकिन मायावती ने अपने जन्मदिन के मौके पर यानी 15 जनवरी को ऐलान कर दिया कि वे अकेले चुनाव लड़ेंगी तो भाजपा के रास्ते की एक बड़ी बाधा टल गई। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता नहीं बनने के पीछे भाजपा या केंद्र सरकार की कोई रणनीति रही है लेकिन दोनों राज्यों के राजनीतिक घटनाक्रम की एकमात्र लाभार्थी भाजपा ही है।

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